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नरपशुता


मुझको ऐसा लगाता है कि –
आज की नारी तनधारी आत्माये ही
सबसे ज्यादा ” पापी ” है
आज इसकी बारी
कल ना जाने किसकी बारी है

कभी राह चलते
कभी घर में ही
बंदूक की नोक पर
हवश का शिकार होती है

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कभी रोजी – रोटी- चॉकलेट के लिए
कभी तरक्की के नाम पर
धोखे से तबाह कर दी जाती है
कभी तेज़ाब की सजा से छ्टपटाती है

कितना रोयें ?
कितनी घृणा करें ?
उस ” नरपशुता ” पर
जो अपनी ही
बेटी को रौंद देता है ?

ये कौन सा समय है ?
कौन सा युग है ?
क्या इसका जिकर भी
किसी वेद या पुराण में
किया गया है ?

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