नई दिल्ली: राजनीति भी किसी कला से कम नहीं होती। जरा सा दिमाग हल्के चला नहीं या नए आइडियाज खोजने में देरी हुई नहीं कि विपक्षी बाजी मार जाएगा। राजनीति में दल बदलने को लेकर कई बार तरह तरह की बहस हुई हैं। मगर एक रिपोर्ट के आगे सारी बहस सब ठंडी हो जाती हैं। दरअसल एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिकट रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सर्वे कर एक रिपोर्ट तैयार की है।
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2016 से लेकर 2020 तक हुए चुनावों में कांग्रेस के 170 विधायक (42 प्रतिशत) दूसरे दलों में गए हैं। जबकि भाजपा के लिए ये संख्या केवल 18 (4.4 प्रतिशत) तक ही सीमित है। नामी गिरामी संगठन एडीआर ने पूर्व में एक रिपोर्ट में 2016 से 2020 के दौरान चुनावी मैदान में उतरने वाले उन 443 विधायकों और सांसदों के चुनावी हलफनामों का विश्लेषण किया, जिन्होंने उन पांच वर्षों में पार्टियों को छोड़ दिया और फिर से चुनाव मैदान में उतरे।
बता दें कि रिपोर्ट के मुताबिक उक्त अंतराल में 405 विधायकों में से 182 भाजपा (44.9 प्रतिशत) में शामिल हुए तो 38 विधायक (9.4 प्रतिशत) कांग्रेस और 25 विधायक तेलंगाना राष्ट्र समिति का हिस्सा बने। वहीं 2019 लोकसभा चुनावों के दौरान पांच लोकसभा सदस्यों ने भाजपा छोड़ दूसरी पार्टी ज्वाइन की। जबकि 2016-2020 के दौरान कांग्रेस के सात राज्यसभा सदस्यों ने दूसरी पार्टियों का हाथ थामा।
गौरतलब है कि रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक में तो सरकार बनने बिगड़ने तक का फैसला पाला बदलने वालों के कारण हुआ। इसके अलावा बताया गया कि 2016 से 2020 के दौरान पार्टी बदलकर राज्यसभा चुनाव फिर से लड़ने वाले 16 राज्यसभा सदस्यों में से 10 भाजपा में शामिल हुए।
इसी अवधि में करीब 12 लोकसभा सांसदों ने पार्टी बदलकर दोबारा चुनाव लड़ा। इनमें से पांच (41.7 फीसदी) सांसद 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा और कांग्रेस छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो गए। वहीं पाला बदलने वाले 16 राज्यसभा (43.8 फीसदी) सांसदों ने 2016 से 2020 के दौरान कांगेस छोड़कर दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ा।
एडीआर के आंकड़े बताते हैं कि दल बदलकर चुनाव लड़ने वाले 357 विधायकों में से 170 ने जीत दर्ज की। विधानसभा उपचुनावों में तो ऐसे 48 नेताओं में से 39 ने सीट जीती। रिपोर्ट में एडीआर ने कहा कि राजनीति में दल बदलना अब तो एक पारंपरिक सी रिवायत हो चली है। दल बदलने के सबसे प्रमुख कारणों में मूल्य आधारित राजनीति का नहीं होना, पैसे और सत्ता की लालसा, धन और ताकत के बीच सांठगांठ है।
गौरतलब है कि इन प्रवृत्तियो में सुधार ना होने तक मौजूदा चुनावी और राजनीतिक स्थिति सुधरना लगभग नामुमकिन सी बात है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि राजनीति को निष्पक्षता, स्वतंत्रता, विश्वसनीयता, समानता, ईमानदारी और विश्वसनीयता की कसौटी पर खरे उतरने की जरूरत है। यह लोकतंत्र के लिए गलत होगा कि हम इन कमियों को दुरुस्त नहीं कर पाएं।