हल्द्वानी: देश के लिए अपने प्राण त्याग देने वाले जवान शहीद होकर अपने पीछे हजारों कहानियां छोड़ जाते हैं। यही कहानियां लाखों युवाओं को देश सेवा के लिए प्रेरित करती हैं। बिंदुखत्ता निवासी अशोक चक्र विजेता मोहन नाथ गोस्वामी देश के दुश्मनों से लोहा लेते हुए छह साल पहले शहीद हुए थे। आज बात उन्हीं की चंद कहानियों की होगी।
उत्तराखंड को देवभूमि के साथ साथ सैन्य भूमि के नाम से भी जाना जाता है। ये नाम भी उत्तराखंड के उन वीर जवानों की बदौलत मिला है जो या तो आज शहीद हो चुके हैं या अपनी जान पर खेल कर आज भी देश की रक्षा कर रहे हैं। इसी लिस्ट में एक नाम हल्द्वानी बिंदुखत्ता निवासी शहीद मोहन नाथ गोस्वामी का भी आता है।
शहीद लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी ने 2002 में सेना की इलीट पैरा कमांडो को ज्वाइन किया था। बहुत ही कम समय में मोहन नाथ की वीरता और प्रण ने उन्हें यूनिट के सबसे जांबाज सैनिकों की गिनती में शुमार कर दिया था। खूब बड़े बड़े कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के साथ ही उन्होंने कश्मीर में भी आतंकियों के खिलाफ जीत हासिल की थी।
ये साल 2015 की बात है जब आतंकियों के खिलाफ भारतीय सेना के अलग-अलग ऑपरेशन चल रहे थे। बताते हैं कि इसमें मोहन नाथ ने करीब 11 दिनों में दस आतंकवादियों को ढेर कर दिया था। दरअसल हंदवाड़ा में अगस्त महीने के आखिरी सप्ताह में लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी की आतंकियों के साथ पहली मर्तबा भिड़ंत हुई।
जिसमें शहीद मोहन नाथ ने पाकिस्तान मूल के लश्कर-ए-तैयबा के तीन आतंकियों को मार गिराया। इसके तीन दिन बाद राफियाबाद में हमला हुआ। जहां मोहन नाथ ने फिर से तीन आंतककियों को मारकर उके मंसूबों पर पानी फेरा। इस ऑपरेशन को पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ निवासी सबसे खतरनाक आतंकी सज्जाद अहमद उर्फ अबु उबेदउल्लाह को पकड़ने के लिए भी याद किया जाता है।
राफियाबाद के बाद कुपवाड़ा के जंगलों में आतंकियों ने उत्पात मचाया तो यहां भी सेना ने ऑपरेशन शुरू किया। इस ऑपरेशन में शहीद मोहन नाथ ने चार आतंकियों को मारा मगर उनकी गोली का शिकार भी हो गए। शहीद मोहन नाथ ने देश के लिए अपने प्राण त्याग दिए थे। इधर, उनके निवास क्षेत्र में लोग आंसुओं के साथ उन्हें नमन कर रहे थे।
बहरहाल शहीद मोहन नाथ गोस्वामी मरणोपरांत सर्वोच्च वीरता पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। जो कि राष्ट्रपति द्वारा उनकी पत्नी को दिया गया। दुर्भाग्य की बात तो केवल ये है कि छह साल बाद भी राज्य में उनकी याद में स्टेडियम नहीं बन सका। दरअसल तत्कालीन सरकार का वादा पूरा ना होने से परिजनों ने आंदोलन भी किया मगर उसका कोई परिणाम नहीं निकला।