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उत्तराखंड लोकसंगीत जगत में छाई खामोशी, नहीं रहे सुप्रसिद्ध लोक गायक प्रह्लाद मेहरा


Prahlad Mehra, journey as a folk singer:- अपनी सुमधुर आवाज से लोगों के दिलो को जीत लेने वाले लोकगायक प्रह्लाद मेहरा नहीं रहे। अपना पूरा जीवन उत्तराखंड संगीत जगत को देने वाले प्रह्लाद दा का यूं चले जाना उनके प्रशंसकों के बीच एक खालीपन छोड़ गया है। आपको बताते चलें कि बुधवार दिन में प्रहलाद मेहरा को अचानक सीने में तेज दर्द की शिकायत हुई। हल्द्वानी के निजी चिकित्सालय ले जाने पर चिकित्सक ने उन्हें हृदय गति रुकने के कारण मृत घोषित कर दिया। उनके निधन से प्रदेश के लोक कलाकारों, प्रशंशको व आम जन में शोक की लहर दौड़ उठी और कुमाऊं के लोकसंगीत जगत में खामोशी छा गई है।

पहाड़ को गीत के माध्यम से करते थे व्यक्त

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उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध लोक गायक प्रह्लाद मेहरा के गीत ना केवल किशोर को बल्कि 60–80 वर्ष के बुजुर्गों के दिल में भी जगह कर लेते थे। यह वह गीत थी जिनमें पहाड़ों की बात की जाती थी। ये वो गीत थे जिन में पहाड़ों की नारी की पीड़ा थी, संघर्ष था, प्रदेश में भटकते युवाओं के मन की व्यथा थी और पहाड़ों के सौंदर्य का दर्शन था। लोग कहते हैं कि प्रहलाद दा कि आवाज़ में वह असर था कि पत्थर, पहाड़, नदियां, झरने समेत सभी निर्जीव वस्तुओं में वे अपने संगीत से जीवन डाल देते थे।

गायकी को समर्पित किया जीवन

प्रहलाद मेहरा का जन्म 4 जनवरी 1971 को शिक्षक पिता हेम सिंह और मां लीला देवी के घर में हुआ था। पढ़ाई में उनका मन कम लगा रहता था। 1980 से 85 के दौर में जब मेले और रामलीला का खूब चलन था, तब प्रहलाद दा पिताजी से छुपकर रामलीला मेले में कभी कुछ गा लिया करते थे। गोपाल बाबू गोस्वामी को प्रेरणा स्रोत मानने वाले प्रहलाद मेहरा ने 1989 में गायन के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखा। उन्होंने 150 से ज्यादा गानों को आवाज दी और हमेशा पहाड़ के इर्द-गिर्द ही गीत रचे। प्रहलाद दा उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश में कुमाऊंनी गायक के रूप में सुप्रसिद्ध थे। प्रदेश से लेकर मायानगरी मुंबई तक उनकी आवाज गूंजती थी। उनकी आवाज में वह गजब प्रवाह था कि लखनऊ दिल्ली चंडीगढ़ सहित कई महानगरों में मेहरा को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता था।

शुद्ध पहाड़ी गीतों को बनाया आधार

अपने गीतों में फुहड़ता को अलग रख, प्रह्लाद दा पहाड़ की संस्कृति और खूबसूरती को गाते थे। उन्हें गीत, झोड़ा, चांचरी, न्योली सभी विधाओं में महारथ हासिल थी। अपने गीतों से पहाड़ के संघर्ष को दिखाते हुए प्रह्लाद दा ने कई गीत गाए जिसमें “पहाड़ की चेली लै”, “बार घंटे की ड्यूटी”, “गर्भ भितेरा बेटी ना मारा”, “पाठी दवात भूली गई” आदि गीत शामिल हैं। यहीं नहीं अपने गीत जैसे कि “चंदना म्यारा पहाड़ आए”, “ऐजा म्यारा दानपुरा” आदि के माध्यम से प्रह्लाद दा ने पहाड़ की संस्कृति और खूबसूरती भी दर्शायी। दो सप्ताह पहले आए होली वीडियो गीत “शिव के मन माहि बसे काशी” और “मंदोदरी सिया मिलन गई बाग में” प्रह्लाद दा की अंतिम प्रस्तुति रही।

प्रहलाद दा भले ही आज हम सब के बीच ना हो, पर वो लोकसंगीत जगत में हमेशा ध्रुवतारे की तरह चमकते रहेंगे। उनके गीत “जी रैया जागी रैया” की तरह हमेशा वो हमारी यादों में जीवित रहेंगे।

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