अल्मोड़ा: हेमराज चौहान: दिल्ली में विधानसभा चुनाव के नतीजों से शायद कोई आश्चर्यचकित हुआ हो, जो इन चुनावों को नज़दीक से कवर कर रहे थे और लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी की कार्यशैली और रणनीति पर नज़र रख रहे थे, वो ये समझ रहे थे कि बीजेपी के लिए दिल्ली में 22 साल का वनवास खत्म करना बेहद मुश्किल होने वाला है. वो बस इस बात को लेकर उत्सुक थे आप को बहुमत से आगे कितनी सीटें मिलने जा रही है. बीजेपी को कांग्रेस से उलटफेर की उम्मीद थी ताकि उनकी स्थिति मजबूत हो सके. वहीं नागरिकता संशोधन कानून(CAA) के खिलाफ दिल्ली के मुस्लिम बहुत इलाके में चल रहे महिलाओं के आंदोलन में बीजेपी को अपने लिए संभावना दिखी. उसने शाहीन बाग को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से जोड़कर पूरे चुनाव का धुव्रीकरण करना चाहा, शायद वो इसमें कुछ हद तक सफल रही जो उसका बढ़ा हुआ वोट शेयर बताता है.
वहीं इसकी काट में जो अरविंद केजरीवाल ने बजंरग बली हनुमान को आगे लाकर नया राष्ट्रवाद का कार्ड खेला उसने कई हद तक बीजेपी के कोर वोटबैंक में सेंध मारी. उन्होंने देशभक्ति की नई परिभाषा गढ़ते हुए कहा कि देशभक्ति का मतलब लोगों को बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराना है. वहीं कांग्रेस की बात करें तो उसका प्रदर्शन दिल्ली के विधानसभा चुनाव के इतिहास में सबसे खराब रहा, या कहें कि उसकी दुर्गति हुई है. 7 साल पहले लगातार 15 साल तक दिल्ली की सत्ता में काबिज कांग्रेस को लगातार दूसरे चुनाव में कोई सीट नसीब नहीं हुई, जबकि लोकसभा चुनाव 2020 में वो दूसरे नंबर की पार्टी थी. उसे दिल्ली में करीब 22 फीसदी वोट शेयर मिला था. इस हार का असर कांग्रेस पर आने वाले चुनावों में भी पड़ना निश्चित है खासकर वहां जहां वो बीजेपी के साथ सीधे टक्कर में है और तीसरे विकल्प की संभावना नहीं है.
उत्तराखंड में क्षेत्रीय पार्टी लगभग बेअसर है, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उत्तराखंड में जहां दो साल बाद साल 2020 के शुरुआत में चुनाव होने है, वहां क्या वो इतिहास दोहरा पाएगी. राज्य में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का रिकॉर्ड पिछले चार चुनावों में रहा है. लेकिन मौजूदा हालात में लगता नहीं कि कांग्रेस के लिए राह आसान है. बीजेपी जिस राष्ट्रवाद के कार्ड के सहारे अन्य राज्यों में चुनाव लड़ी और स्थानीय मुद्दे गोड़ करते गई, वहां उससे पिछले चुनावों में हार का सामना करना पड़ा खासकर लोकसभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत के बाद.
चार राज्यों में हुए चुनाव में वो सिर्फ हरियाणा में ही सरकार बचा पाई वो भी जेजेपी की मदद से. कुछ लोग इसे कांग्रेस की बीजेपी से रोकने की रणनीति से जोड़ रहे हैं पर ये संभव नहीं है कि वो अपना कोर वोटर खोकर ये करे. उत्तराखंड में आने वाला चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही होने वाला है क्योंकि यहां क्षेत्रीय पार्टी के ना कोई चेहरा और ना ही संगठन. कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी दिकक्त गुटबाजी और कमजोर संगठन है. वो अपने आतंरिक झगड़े में उलझी हुई है. अगर चेहरे की बात करे तो उसके पास हरीश रावत का जैसा चेहरा मौजूद है लेकिन उन्हें लेकर राज्य कांग्रेस के नेताओं में सहमति नहीं दिख रही है. इसके अलावा दूसरी वजह है कि क्या कांग्रेस आलाकमान उन्हें नेतृत्व का मौका देगा. पिछले विधानसभा चुनाव में मिली बडी हार इसकी वजह है.
वो विधानसभा चुनाव 2016 में ना सिर्फ दो सीटों से हारे बल्कि साल 2019 में वो लोकसभा चुनाव भी नहीं जीत पाए. इसके अलावा उन्हें असम का प्रभार सौंपकर फिलहाल उत्तराखंड की राजनीति से अलग किया गया है. लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है उनकी महत्वाकांक्षा एक बार फिर देवभूमि का सीएम बनने की है और पांच साल का एक पूरा कार्यकाल पाने की है. लेकिन सवाल ये है कि रसातल में जा रही कांग्रेस के ये करेगी.
पिछले साल पांच में विपक्ष के तौर पर सरकार को बेहतर तरीके से नहीं घेर पाई है. वहीं पलायन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे स्थानीय मुद्दों को चुनाव में वो भुना पाएगी फिलहाल ऐसा नहीं लगता है. ऐसे में अगर बीजेपी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जैसे मुद्दे पर चुनाव लड़ा तो कांग्रेस के पास इसकी काट क्या होगी देखना दिलचस्प होगा? बीजेपी सूबे में पीएम मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़े इसकी पूरी संभावना है..