देहरादून:पीढ़ी को बढ़ाना हर कोई चाहता है, लेकिन बिना बेटियों के । ऐसा हम इसलिए कह रहे है अपने आप को आधुनिक और मार्डन करार देने वाला उत्तराखण्ड में बेटियां सुरक्षित नहीं है। जो समाज अपने आप को शिक्षित कहता है वो बेटियों को जन्म देने से कतराता है। बेटी बचाओं,बेटी पढ़ाओ के नारे की भी एक रिपोर्ट ने उत्तराखण्ड की पोल खोल दी है। जन्म के समय लिंगानुपात के आंकड़े हरियाणा को नीचा दिखाते रहे है लेकिन अब इस लिस्ट में उत्तराखण्ड भी दूसरे स्थान पर पहुंच गया है।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में जन्म के समय लिंगानुपात (प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या) में 27 अंक की गिरावट दर्ज की गई है। रिपोर्ट में जन्म दर को आधार बनाते हुए आधार वर्ष 2012-14 घोषित किया गया है। हालांकि जन्म दर से इतर जनगणना 2011 में किए गए विस्तृत सर्वे की बात करें तो 0-6 वर्ष तक की आयु में लिंगानुपात 886 था। जबकि, इस सर्वे के आधार वर्ष 2012-14 में यह संख्या 871 पर खिसक गई।
लिंगानुपात में 15 अंक की गिरावट आ गई थी। सरकार बेटियों के लिए नारे तो खूब लगा रही है लेकिन वो भी नींद में। नीति आयोग इस रिपोर्ट सरकार के अलावा समूचे उत्तराखण्ड की पोल खोलकर रख दी है। अगर हमारी सरकार तभी जाग जाती और गिरते लिंगानुपात पर अंकुश लगाने के लिए प्रभावी प्रयास किए जा सकते थे। कागजों और सरकारी दावों में ऐसा किया भी गया, मगर यह प्रयास कितने धरातलीय थे, इसकी पोल नीति आयोग की इस रिपोर्ट में खुल गई।
साल 2011 की जनगणना की बात करें तो लिंगानुपात की दर में 42 अंकों की कमी आई। उत्तराखण्ड इस मामले में केवल हरियाणा से आगे है। लगातार गिरते रहे अंकों ने इस बात का डर पैदा कर दिया है कि कही राज्य इस मामले में हरियाणा से भी पीचे ना हो जाए। पूर्व की बात करें तो उत्तराखंड में लिंगानुपात स्तर निम्न रहा है। कुल लिंगानुपात (महिला-पुरुष) की बात करें तो जनगणना 2011 में यह संख्या 963 थी। जबकि, 2001 में हम एक अंक नीचे 962 पर थे। ऐसे में उम्मीद थी कि समय के साथ लिंगानुपात में स्थिति और बेहतर होती। लेकिन मौजूदा स्थिति और गिरती जाती दिख रही है।