Editorial

एक बार फिर हुआ जनता के जनादेश का अपमान

नयी दिल्ली :हेमराज चौहान :पिछले कुछ से भाजपा या कहें पीएम  मोदी और अमित शाह के हाथ भाजपा की कमान आने के बाद पार्टी आक्रामक तरीके से अपना विस्तार करने रही है. इसके लिए वो हर वो दांव चल रही है जो वो चल सकती है. पर इस पूरे राजनीति के खेल में जनता के जनादेश का भारी अपमान हो रहा है, ताजा उदाहरण बिहार का है. जहां उसने बिहार के सीएम और जेडीयू के अध्यक्ष नीतीश कुमार के गठबंधन तोड़ने के चंद घंटो में ही उसे समर्थन दे दिया और दूसरे दिन सरकार में भागीदार भी बन गई. ये सीधे भाजपा की सत्ता पाने की चाहत और जल्दबाजी दिखाती है. जनता ने जिस गठबंधन को जनादेश दिया था. उसका सम्मान करते हुए अगर चुनाव में नया गठबंधन कर जीत कर विधानसभा में पहुंचा जाता तो ये लोकतंत्र की जीत होती. पर जिस तरह से उसने इस मौके पर ये ना कर दूसरा रास्ता चुना वो किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में जायज नहीं ठहराया जा सकता. आज देश के 18 राज्यो में या तो भाजपा की सरकार है या वो मुख्य सहयोगी है. भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाने के बाद परदे के पीछे से भी सरकार बनाने की कोशिश की है. उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में वो राष्ट्रपति शासन लगाकर ये कर चुकी है. जिसको लेकर फैसला सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद पलटा गया. उसके बाद पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भी उसने अपनी जीत तय करने के लिए उन लोगों को टिकट दिए जिन पर वो दूसरी पार्टी में रहते हुए या कहें कि वहां विपक्ष में रहते हुए सत्ताधारी पार्टियों को इनके नाम पर निशाने पर लिया..

इसमें असम और उत्तराखंड प्रमुख हैं. यहां जिन नेताओं को जातीय समीकरण और जीतने की संभावना देखते हुए टिकट दिए गए उनके पर करप्शन के गंभीर आरोप थे. यूपी में भी लगभग हर विपक्षी पार्टी के नाराज लोगों को टिकट मिले. बिहार में साम-दाम दंड भेद से सरकार बनाने के बाद गुजरात में वो कहानी दोहरायी जा रही है. जिन चार विधायकों ने आज कांग्रेस से इस्तीफा दिया उनमे से एक को राज्यसभा भेजा जा रहा है. इसके साथ ही भाजपा अपने विस्तार के मद़देनजर पश्चिम बंगाल,ओडिशा और केरल में भी मजबूती से बढ़ रही है. ऐसा नहीं कि ये आरोप भाजपा पर लगे हैं. कांग्रेस पर सत्ता में रहते हुए संघीय ढांचे के अपमान के सबसे अधिक आरोप लगे हैं. पर भाजपा का उस नीति पर चलना लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है. आज देश की राज्य सरकारें डर के माहौल में हैं. उन्हें हर दिन अपने पीछे जांच एजेंसी के पड़ने की चिंता सताती है. भ्रष्टाचार पर जीरो टोलरेंस व्यक्ति और पार्टी को केंद्रित कर नहीं होना चाहिए. ये हर उस व्यक्ति पर होना चाहिए जो से इस खेल का खिलाड़ी है. उनके अपने राज्यों में जहां सरकार के उनके कई मुखियाओं और नेताओं पर ये आरोप हैं. एमपी में तो एक नेता पेड न्यूज के मामले में दोषी ठहरा दिया गया है पर वो मंत्री पद संभाल रहा है.


छत्तीसगढ़ में एक मंत्री की पत्नी पर वन विभाग की ज़मीन पर रिजॉर्ट बनाने का आरोप लगा है. सवाल ये हैं कि अगर सरकार भ्रष्टाचार पर गंभीर है तो वो सलेक्टिव क्यों हैं? उसकी प्राथमिकता में दोहराव क्यों हैं? इस तरह से एक पार्टी विस्तार तो पा सकती है, लोकप्रिय भी हो सकती है पर संवैधानिक नहीं हो सकती जो इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी ज़रुरत है खासकर उस समय में जब इनकी विश्वसनीयता पर गंभीर संकट हो

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