जब से ऑनलाइन कंटेंट मीडियम का चलन बढ़ा है और सिनेमा बनाना सस्ता हुआ है, तब से सिनेमा की जड़ छोटे शहरों, गांव में पनपने लगी है। यही कारण है कि इन जगहों के प्रति फ़िल्म इंडस्ट्री का रुझान बढ़ा है। आगरा, मथुरा, हरिद्वार, नैनीताल, ऋषिकेश जैसी जगहों की कहानियां सिनेमा के पर्दे पर कही जा रही हैं।
कनपुरिये भी एक छोटे शहर कानपुर में रहने वाले लोगों की कहानी है जिन्होंने छोटे शहर में रहकर भी बड़े सपने देखे और उन्हें पूरा करने में जी जान लगा दी। विस्तार में जाऊं तो कहानी तीन लड़कों की है। जैतून यानी अपारशक्ति खुराना एक छोटी सी नौकरी के दम पर छोकरी और उनके पिताजी को ख़ुश करने की जुगत में लगे हैं। विजय दीनानाथ चौहान यानी दिव्येंदु शर्मा ख़ुद वकील होकर अपने ऊपर चल रहे मुकदमें में कैद हैं। इन्हें भी प्रेम प्रसंग ने ही पीड़ा दी है। ये चाहते हैं कि प्रेम प्रसंग और कोर्ट कचरही से छुट्टी मिले और ये मुंबई जाकर बड़े वकील बने और अपने परिवार के दुख काटें।
तीसरे और सबसे मुख्य किरदार जुगनू यानी अपने हर्ष मायर एक बढ़िया शेफ बनना चाहते हैं। मगर आम मध्यम वर्गीय परिवार की तरह इसमें उनके पापा विलेन बन गया। मगर एक बात जो यहां आम नहीं है और वह यह कि पापा जी यानी एक्टर विजय राज़ इन्हें कोई डॉक्टर, इंजीनियर, दरोगा नहीं बनवाना चाहते। वह चाहते हैं कि भैया जुगनू पैतृक पेशे को आगे बढ़ाएं। वह पेशा है अश्लील नाच और गाने का झमाझम प्रोग्राम जहां भरे बदन की औरत अपनी जवानी का सोमरस समाज के सबसे निचले तबके के मर्दों को चखाती है। जुगनू यानी बाउवा चाहते हैं किसी तरह निकलें और शेफ का सपना हक़ीक़त का रूप ले।
जैतून, जुगनू, विजय दीनानाथ चौहान की ज़िदंगी में क्या मोड़ आते हैं और क्या वह सपने, पैशन, प्रेम को प्राप्त होते हैं यह जानने के लिए फ़िल्म देखें।
अभिनय सभी ने ज़बरदस्त किया है। आज की डिजिटल फ़िल्मों का सबसे अच्छा पॉइंट यह है कि निर्धारित सीमा में बात कही जाती है। यानी डेढ़ घंटे में तगड़ा अभिनय, प्यारी कहानी और बढ़िया एक्टर – ऑडियंस कनेक्शन।
दिव्येंदु का किरदार क्योंकि मिर्ज़ापुर के मुन्ना भैया से लोकप्रिय हुआ था इसलिए फ़िल्म में भी बार बार उसकी झलक दिखी है। हालांकि यहां रंग और रस बिलकुल जुदा है। पूरी फ़िल्म में नज़र जमी रहती है उन पर।
अपारशक्ति को टीवी एड वगैरह में इतना देख लिया है कि अब वो पड़ोस के चुलबुले भैया महसूस होते हैं। उनका किरदार जो संजीदगी, भोलापन, गंभीरता लिए हुए है वही यूएसपी है। एक नया कलेवर में उनका काम सामने आया है।
अभिनेत्री हर्षिता गौड़ ने भी अपने किरदार को बखूबी निभाया है। एक छोटे शहर में प्रेम करने वाली लड़की जिसे अपने प्रेमी, परिवार, समाज में जो सामंजस्य बनाना पड़ता है, वह बख़ूबी दिखा है हर्षिता के काम में।
सहयोगी कलाकारों का काम भी शानदार है।
अब बात उन कलाकारों की, जिनके काम को देखकर आज की शाम बन गई है।
फ़िल्म में एक्टर विजय राज़ और हर्ष मायर पिता पुत्र की भूमिका में हैं। एक पिता जो अपने बेटे से चाहता है कि वह उसके पैतृक काम को आगे बढ़ाए। एक बेटा जो अपने शौक़, जुनून, पैशन को जीना चाहता है। फिर शुरू होता है दोनों का कॉन्फ्लिक्ट। और इस तरह से भारत के घरों में अपने ख़्वाबों को ज़िंदा रखने के लिए होने वाली जद्दोजहद स्क्रीन पर नज़र अाने लगती है।
हम सभी अपने अपने स्तर पर संघर्ष कर रहे हैं। संघर्ष से सफलता तक की कहानी सुनकर, देखकर, पढ़कर हम सभी प्रेरित होते हैं। हमारी रुचि होती है इस तरह के जीवन में जहां लोग फर्श से फलक तक पहुंचने की कवायद में जुटे हों।
विजय राज़ और हर्ष मायर के अद्भुत अभिनय और तालमेल ने उस संघर्ष को जीवंत कर दिया है। मैं अपने पिता के साथ जिस संघर्ष में इस वक़्त उलझा हुआ हूं उसका पूरी तस्वीर मुझे स्क्रीन पर दिखाई दे रही है। पूरी फ़िल्म का स्तर ही उठा दिया है इन दो कमाल के अभिनेताओं ने।
कोई भी आर्ट फॉर्म ज़िंदा रहती है और फिर अमर हो जाती है जब उसका ऑडियंस के साथ कनेक्शन हो।
यह फ़िल्म पूरी तरह से जुड़ जाती है दर्शक के साथ।
फ़िल्म का गीत संगीत भी बहुत प्रभाव पैदा करता है। अच्छी एडिटिंग और निर्देशन फ़िल्म को साध कर रखता है। इसके लिए पूरी टीम को बधाई। कुल मिलाकर फ़िल्म देखी जानी चाहिए। फ़िल्म आंखें नम करती है, खिलखिलाहट देती है और फिर एक सुकून भरा सुख देकर चुपचाप आपको कहानी के साथ सफ़र करने, उसे ख़ुद से जोड़ने और जीने के लिए छोड़ जाती है।