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उत्तरकाशी के चाचा भतीजे की जोड़ी ने बदली पूरे गांव की तस्वीर, होम स्टे के जरिए रोका पलायन


Bhagat Singh rawat and chain Singh rawat story:- उत्तराखंड के गाँव एक तरफ जहां अपनी मनमोहक छवि से लोगों का मन मोह लेते हैं, वहीं ये गांव पलायन जैसा एक बड़ा दुख भी सहते हैं। उत्तराखंड के कुछ युवा आज काम की तलाश में इन गांवों को छोड़कर बड़े शहरों में पलायन कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वक्त में यह तस्वीर बदलती दिखी है। स्वरोजगार की राह पर चलकर कई युवाओं ने पहाड़ की मिट्टी से अपना लगाव दिखाया है। आज कई युवा अपने गांव में रहकर ना सिर्फ खुद कमाई कर रहे हैं, बल्कि दूसरे लोगों को भी रोजगार के अवसर दिला रहे हैं।

उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के साँकरी-सौड़ गाँव के भगत रावत और उनके भतीजे चैन सिंह रावत ने स्वरोजगार की एक ऐसी ही पहल शुरू की है। अपने गाँव को टूरिस्ट प्लेस के रूप में विकसित कर के उन्होंने देश भर से पर्यटकों का ध्यान अपनी गांव की तरफ आकर्षित किया है।

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इस पहल की शुरुआत को ले कर भगत सिंह रावत बताते हैं कि साल 1995 के आसपास उनके क्षेत्र में पर्यटकों का आना शुरू हुआ था, लेकिन उनका सफर इस से कई वर्ष पहले ही शुरू हो गया था। वो बताते हैं कि लगभग 40 साल पहले कुछ लोग केदार कांठा ट्रैकिंग के लिए आए थे। भगत सिंह तब अपने साथियों के साथ बकरियाँ और गाय चराने के लिए उधर जाते रहते थे, और इस कारण उन्हें केदार कांठा का रास्ता पता था। पर्यटकों के पूछने पर उन्होंने उन्हें रास्ता बता दिया। जाते समय पर्यटकों ने उन्हें 75 रुपए दिए, जो उस समय में एक बहुत बड़ी बात थी। इस के बाद वे कई बार स्कूल से आने के बाद चुपके से पर्यटकों को ट्रैकिंग पर ले जाते। उनके इस कार्य पर उन के घर वालों ने उन्हें काफ़ी टोका भी, परंतु काम में रुचि होने के कारण वे घर वालों से छिपकर पर्यटकों को ट्रैकिंग कराते रहते थे।

भगत रावत के काम में उनका साथ उनके भतीजे चैन सिंह रावत ने दिया। चैन सिंह रावत ने उत्तरकाशी से टूरिज्म में पोस्ट ग्रेजुएशन के साथ ही पर्वतारोहण का भी कोर्स किया है। अपनी पढ़ाई पूरी कर वे अपने गांव साँकरी-सौड़ वापस आ गए। चैन सिंह कहते हैं कि उन्हें इस बात का एहसास था कि उनकी इस पहल की शुरुवात, उनके गांव से ही की जानी चाहिए। इससे ना केवल उन्हें, बल्कि गांव के युवक और युवतियों को भी रोजगार मिल सकता है। जीव सिंह और चैन सिंह ने साल 2002 में “हर की दुन प्रोटेक्शन एंड माउंटेनियरिंग एसोसिएशन” की शुरुआत की, जिससे आज उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर सहित 250 से 300 लोग जुड़े हुए हैं।

उनकी इस पहल के कारण अब गांव के ज्यादातर घरों में होम स्टे बना दिए गए हैं। पर्यटक यहां उत्तराखंड के पारंपरिक घरों में रुकते हैं और उन्हें यहाँ का खाना भी खिलाया जाता है। होम स्टे में रुकने वाले पर्यटकों का पूर्ण रूप से आदर सत्कार किया जाता है। जब कोई गेस्ट आता है तो उसका पारंपरिक तरीके से फूल माला पहनाकर स्वागत किया जाता है।

इस ही गांव के रहने वाले 54 वर्षीय बलबीर सिंह जैविक खेती के साथ साथ होम स्टे भी चलाते हैं। वे और उनकी बहन होम स्टे का काम देखते हैं। जब कभी मेहमान आते हैं, वो उन्हें अपने खेतों में उगी अनाज और सब्जियाँ खिलाते हैं। बलबीर सिंह बताते हैं कि इस काम में खर्च काटकर उन्हें लगभग ढाई से तीन लाख रुपए तक का मुनाफा हो जाता है।

चैन सिंह रावत के अनुसार आज उनके गाँव से पलायन खत्म हो गया है। गांव के लोग अब अपने परिवार के साथ रहते हैं। अपने गांव की बदलती तस्वीर देख वे आज काफ़ी संतुष्ट और प्रसन्न हैं।

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