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पर्यावरण संरक्षण का त्यौहार है हरेला, जानें पूरा इतिहास जिससे जुड़ी है करोड़ो लोगों की आस्था


माना जाता है कि हरेले के दिन लगाया गया पेड़-पौधा सूखता नहीं है बल्कि बड़ा होकर फल, फूल , ईंधन व चारे आदि की जरुरतें पूरी करता है . हम बच्चे भी जहॉ हरेला देने जाते वहॉ से कोई न कोई फल-फूल का पौधा या उसकी टहनी जरुर लाते . परिवार के सयाने भी इस बात को कहते थे कि हरेले के दिन फँला फल का पेड़ लगाना या फँला फूल की टहनी ले कर आना . मतलब ये कि किसी तरह के पेड़-पौधे को लगाने के लिये गॉव में साल भर हरेला का इंतजार किया जाता था . इस परम्परा से यह भी पता चलता है कि हमारे त्योहार पर्यावरण संरक्षण के त्योहार भी हैं . बढ़ते शहरीकरण के कारण हॉलाकि अब पेड़-पौधे लगाने की परम्परा हर साल कम होती जा रही है . जिससे त्योहार से जुड़ी पर्यावरण संवर्धन की परम्परा पर खतरा मँडरा रहा है . दस दिन पहले से शुरू होती है तैयारी उत्तराखण्ड के कुमाऊँ में हरेले का त्योहार मनाने की तैयारी दस दिन पहले से ही हो जाती है . कुछ स्थानों पर नौ व ग्यारह दिन पहले यह तैयारी होती है . आषाढ़ महीने के आठ, नौ या दस दिन शेष रहने के दिन घर की सयानी महिलायें व्रत रखकर पूजा इत्यादि करने के बाद रिंगाल की छोटी सी गोल टोकरी की लिपाई-पुताई कर उसमें साफ-सुथरी मिट्टी भरती हैं . उसके बाद विषम संख्या में खरीब की अनाज के दाने मिलाये जाते हैं . यह संख्या पॉच, सात , नौ में होती है . अनाज के दानों में धान , तिल, मक्का , जौ , उड़द , लोबिया , सरसों आदि होते हैं .
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