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पर्यावरण संरक्षण का त्यौहार है हरेला, जानें पूरा इतिहास जिससे जुड़ी है करोड़ो लोगों की आस्था

हल्द्वानी:जगमोहन रौतेला: श्रावण महीने की संक्रान्ति को मनाये जाने वाला हरेला त्योहार भी अब धीरे धीरे लोगों की आत्ममुग्धता का शिकार हो रहा है . पहले हरेले के दिन पूरे गॉव में एक उल्लास का माहौल रहता था . हरेले से पहले धान की रोपाई पूरी तरह से खत्म हो जाती थी . इसके बाद लगभग दो महीने तक गॉव में लोग आराम से रहते थे , क्योंकि खेती-बाड़ी का कोई काम नहीं होता था . भाबर में घरों की बसासत गॉव में बीच में होती थी . घर के दोनों ओर खेत होते थे . घर के बराबर में ही पूरे गॉव के लिये कच्ची सड़क होती थी . जिसे भौली कहते थे . दोनों ओर अलग-अलग फसल बोयी जाती थी . उन दिनों आमतौर पर कुछ गॉवों में एक ओर धान तो दूसरी ओर मक्का बोयी जाती थी . मक्का कटने के बाद उसमें सरसों बोयी जाती थी और उसके बाद गेहूँ की फसल होती थी . जिस ओर धान लगाया जाता था वहॉ धान के कटने के बाद सीधे गेहूँ बोया जाता था . भाबर के कुछ गॉवों में गन्ना भी लगाया जाता था . जहॉ गन्ना लगता था वहॉ मक्का नहीं बोते थे , क्योंकि गन्ने की फसल पूरे बारह महीने की होती है . अगली बार फिर फसल चक्र बदल जाता था . जहॉ पिछली बार धान लगाया था वहॉ अगली बार मक्का बोया जाता था .
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