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नहीं रहा देवभूमि का पहला कीर्ति चक्र विजेता सपूत, देश को दिया अपना जीवन

हल्द्वानी: देश भक्ति की कोई सीमा नहीं होती है। जिसके अंदर को अपना घर बना लेती है उसके सामने देश जिंदगी बन जाता है। उत्तराखण्ड की पहचान देश सेवा के लिए आज नहीं दशकों से हो रही है। पहाड़ के औसतन हर घर से एक व्यक्ति भारतीय फौज में सेवा दे रहा होता है। आज हम एक ऐसे ही सपूत के बारे में बताने जा रहे है जिसने देश सेवा के लिए अपने परिवार को पीछे छोड़ दिया। इसके लिए देश की रक्षा उसके जीवन का सबसे बड़ा मिशन बन गया था। हम बात करे रहें है उत्तराखंड के पहले कीर्ति चक्र विजेता रिटायर्ड ले कर्नल इंद्र सिंह रावत की, जिन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया है। उनकी उम्र 104 वर्ष थी और उन्होंने रेसकोर्स स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। देश के वीर जवान को 11वीं गढ़वाल राइफल्स की सैन्य टुकड़ी ने उन्हें अंतिम सलामी दी।

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उत्तराखंड के पूर्व सैनिकों ने भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। रिटायर्ड ले कर्नल इंद्र सिंह रावत का अंतिम संस्कार  हरिद्वार में राजकीय सम्मान के साथ किया गया।

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उनके दोनों बेटे राजेंद्र रावत और हरेंद्र सिंह रावत भी फौज में है। इसके अलावा वो अपने पीछे तीन बेटियां अंबा, राजेश्वरी व विजयलक्ष्मी समेत नाती-पोतों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं। साल वर्ष 1932 में 18 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हुआ था। लेकिन परिस्थितियां ऐसी रही कि वर्ष 1939 तकवो अपनी पत्नी से दूर रहे।

जन्म से ही था देश भक्ति का जज्बा

देश वीर सपूत ले. कर्नल रावत का जन्म 30 जनवरी 1915 को पौड़ी गढ़वाल के बगेली गांव (राठ क्षेत्र) में हुआ। उनका परिवार खेती से जुड़ा हुआ था।  कर्नल रावत ने अपनी प्राथमित शिक्षा गांव से करीब चार किमी दूर खिर्सू मिडिल स्कूल से ली। साल 1934 में हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने लैंसडौन गए और  गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए। रिक्रूट का प्रशिक्षण पूरा किया तो  यूनिट ने वर्ष 1937 में उन्हें आर्मी एजुकेशन स्कूल बेलगाम भेज दिया। इसके बाद वीसीओ स्कूल बरेली व आइएमए से कोर्स पूरा कर वर्ष 1944 में इंद्र सिंह कमीशंड अफसर बने।

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साल 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। साल 1953 में डेपुटेशन के तौर पर असम राइफल्स में से जुड़े। नागालैंड में नागा विद्रोह को मुंहतोड़ जवाब देने  के लिए उन्हें अशोक चक्र-दो (कीर्ति चक्र) मिला। वह गढ़वाल राइफल्स की चौथी व पांचवीं बटालियन में भी तैनात रहे।

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वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद गठित भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आइटीबीपी) की पहली बटालियन की जिम्मेदारी कर्नल रावत को दी गई थी। ग्वालदम में भी आइटीबीपी की दूसरी बटालियन को उन्होंने ही स्थापित किया। गढ़वाल राइफल्स, असम राइफल्स व आइटीबीपी में 37 साल की सैन्य सेवा के बाद कर्नल रावत वर्ष 1970 में रिटायर हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी वह सामाजिक कार्यों में जुट गए। सेना से रिटायर होने के बाद वो सेना के प्रति अपने कर्तव्य से पीछे नहीं रहे। उन्होंने पूर्व सैनिकों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष करते रहे। शतायु होने के बाद भी कर्नल रावत का जुनून व हौसला अंतिम सांस तक बरकरार रहा।

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ले. कर्नल इंद्र सिंह नेगी की जिंदगी से कई संस्मरण जुड़े रहे हैं। अपनी आत्मकथा में उन्होंने जिंदगी के कई संस्मरण लिखे हैं। उन्होंने लिखा है कि शादी के सात साल तक वह अपनी पत्नी आशा देवी की सूरत तक नहीं देख सके थे।

 

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