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उत्तराखंड में उठी मूल निवास 1950 की मांग, स्थाई प्रमाण पत्र और मूल निवास के बीच में फंसा पेंच

Uttarakhand Mool Nivas 1950: Dehradun Protest: अपने एवं अपनी आने वाली पीढ़ियों के अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही उत्तराखंड की जनता ने रविवार 24 दिसंबर को राजधानी देहरादून में प्रदर्शन किया। जहाँ से ‘बोल पहाड़ी हल्ला बोल, कोदा झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बचाएंगे, उत्तराखण्ड मांगे भू कानून, हमको चाहिए अपना अधिकार मूल निवास मूल निवास’ जैसे नारे हर घर तक पहुंचे। यह आंदोलन मूल निवास भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति द्वारा आयोजित किया गया। पर अचानक यह आंदोलन उत्तराखंड के लिए इतना ज़रूरी कैसे बन गया? और इसको सीधे हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी के अधिकारों से क्यों जोड़ा जा रहा है? इन सभी के प्रश्नों का उत्तर आजादी के बाद भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के एक निर्णय में है।

आजादी के बाद वर्ष 1950 में प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने ने 8 अगस्त 1950 एवं 6 सितम्बर 1950 को भारत में अधिवासन के संबंध में एक नोटिफिकेशन जारी किया था। जिसके अनुसार 1950 में देश के किसी भी राज्य में निवास करने वाले व्यक्ति को उस राज्य का मूल निवासी माना जाएगा। उदाहरण के लिए 1950 में उत्तरप्रदेश का कोई व्यक्ति अगर दिल्ली में निवास कर रहा है (रह रहा हो) तो उसे दिल्ली का मूल निवासी माना जाएगा। और राष्ट्रपति के इस निर्णय से भारत के हर राज्य को बाध्य किया गया।

पर अगर यह निर्णय हर राज्य के लिए बाध्य था तो उत्तराखंड में इसकी मांग कैसे और क्यों होने लगी? दरअसल उत्तराखंड की स्थापना 1950 से 50 वर्ष बाद 9 नवम्बर 2000 में हुई। जहाँ कई समीकरण बदले और नए नियम भी लागू हुए। उस समय की नित्यानंद स्वामी की सरकार ने उत्तराखंड में मूल निवास के साथ स्थायी निवास की व्यवस्था भी उत्तराखंडवासियों के लिए की। पर उत्तराखंड के साथ ही बने डप राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ ने केवल मूल निवास को लागू किया।

हालांकि नित्यानंद स्वामी की अंतरिम सरकार ने उस वक्त स्थाई निवास की व्यवस्था तो की लेकिन मूल निवास 1950 को भी जारी रखा। जिसके परिणामस्वरूप ही देश में पहली बार उत्तराखंड से ही स्थाई निवास अस्तित्व में आया। लेकिन अगर नित्यानंद सरकार ने मूल निवास भी जारी रखा था तो आज उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास प्रमाण पत्र क्यों बनाए जाते हैं? मूल निवास 1950 के निर्णय का क्या हुआ?
वर्ष 2010 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायलय में मूल निवास के विषय में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की थी। जिसपर दोनों ही अदालतों ने राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की बाधय्ता को बनाए रखते हुए मूल निवास 1950 को जारी रखने का आदेश दिया।

परन्तु जब वर्ष 2012 में कांग्रेस की सरकार आई तो, उस समय अगस्त 2012 में इसी तरह की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए नैनीताल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने अदालतों की पूर्व आदेशों को रद्द कर फैसला सुनाया कि राज्य गठन यानी 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड में रह रहे सभी लोगों को ही यहां का मूल निवासी माना जाएगा। जिसे कांग्रेस सरकार ने राजी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया और इस निर्णय को ना तो डबल बैंच में चुनौती दी गई और नाही सर्वोच्च न्यायालय में। जिसके कारण अपने अधिकारों और उत्तराखंड के मूल निवास के अधिकार के लिए हर उत्तराखंड निवासी आज भटक रहा है। पर अब पूरे उत्तराखंड ने 1950 मूल निवास की मांग को अपना प्रथम लक्ष्य बना लिया है। और अब देवभूमि सबसे पहले मूल निवास का अधिकार चाहती है। जिस मांग के साथ तेज़ी जुड़ते उत्तराखंड के मूल निवासियों की आवाज़ भाजपा सरकार को पुनः सुनकर समय पर देवभूमि उत्तराखंड को दोबारा न्याय दिलाना होगा।

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