खेल कोई भी हो वह खेला कई स्तरों पर जाता है. जो दिखाई देता है वह मैदान पर और जो अनदेखा वो मैदान के बाहर घटता है. खेल अगर क्रिकेट हो तो रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार भी उसकी पड़ताल करने से पीछे नहीं हटते हैं. भारत में तो इस खेल को धर्म और खिलाडियों को भगवान तक की संज्ञा से नवाज़ा जाता है. इसका जूनून शहर से लेकर छोटे-छोटे गाँव तक में सर चढ़ कर बोलता है. ‘इंग्लिश मैन’ और ‘जेंटलमैन’ का यह खेल 20वीं सदी के तीसरे-चौथे दशक से भारत में लोकप्रिय होने लगा था. खेल ने खिलाडी, तो दर्शकों ने उनमें हीरो तलाशना शुरू कर दिया था. खिलाडी में जब हीरो दिखाई देने लगा तो उसके जरिए खेल की खूब ब्रांडिग होने लगी.
इसी हिरोशिप और ब्रांडिंग ने क्रिकेट को गलियों और खेतों तक पहुँचा दिया. इस यात्रा में 25 जून, 1983 की तारीख बहुत अहम् है. यह भारतीय क्रिकेट इतिहास की विभाजक तारीख है. यहाँ से आप सन् 1983 के पूर्व और सन 1983 के उत्तर के क्रिकेट इतिहास के बदलावों को स्पष्ट रूप में देख सकते हैं. यहीं से क्रिकेट सिर्फ खेल नहीं रह जाता है बल्कि भावनाओं से जुड़ जाता है. यही भावनाएं आगे चलकर हर, हार-जीत के साथ आहत होने लग जात हैं. इसके बाद तो हर मैच के साथ उसका रोमांच बढ़ने लगा. यह रोमांचकारी यात्रा राष्ट्रवाद तक भी पहुँच गई.
खेल सिर्फ जीत-हार तक नहीं रहा बल्कि राष्ट्र के गौरव से भी जुड़ने लगा. इसके बल पर ही यह खेल अभूतपूर्व गति से लोकप्रिय हुआ. इसकी लोकप्रियता का आलम यह रहा कि गाँव-गाँव में खेत क्रिकेट का मैदान बनने लगे और हर कोई अपनी तई इससे जुड़ने लगा. क्रिकेट की इस लोकप्रियता का एक उदाहरण हमारा गाँव भी था. गाँव भर में टीवी नहीं था लेकिन रेडियो पर आने वाली कमेंट्री से ही हम इसके मुरीद हो गए थे.
हमारे इस दौर का आरम्भ सचिन और सौरभ गांगुली से हुआ तो चरम उस खिलाडी तक पहुंचा जिसका जिक्र आगे करूँगा. गाँव में तब ‘मुंगर’ (अनाज कूटने वाला) हमारा बैट, मोजे में कपड़े भरकर सिली हुई बॉल, ‘खो’ (आंगन) मैदान और ‘कंटर’ हमारा स्टम्प होता था. बाद के दिनों में लकड़ी का बैट और प्लास्टिक की ठोस बॉल के साथ खेत क्रिकेट की पिच में तब्दील होने लगे थे. शाम के समय, गाँव भर के लड़के बैट- बॉल खेलने के लिए खाली खेत में जुट जाते थे. झाड़ी से तीन लकड़ी तोड़कर स्टम्प बनाए जाते और
दूसरी तरफ एक बड़ा पत्थर रख दिया जाता था. गाँव में एक लड़का जरूर होता था जो अपने को क्रिकेट के नियमों का ‘बिली बाउडन’ समझता था. वही पिच को नापता, व्हाइट बॉल का पत्थर रखता, क्रीज नापकर बनाता था. हमारे यहाँ इस खेल के कुछ पहाड़ी नियम होते थे. अक्सर ये नियम हर खिलाड़ी को याद होते लेकिन फिर भी मैच शुरू होने से पहले दोहरा दिए जाते थे.
नियम थे-
जिस खेत में खेल रहे हैं वहाँ से 4 खेत ऊपर छक्का होगा. यह निर्धारित करने
में खेत की ऊंचाई भी मायने रखती थी.
नीचे किसी भी खेत में बॉल का सीधा जाना आउट होता था. बॉल भी उसे ही
लानी होती जोशॉटमारता.
सामने की तरफ सीधे रास्ते में टकराने पर चौका और उससे थोड़ा ऊपर
झाड़ी में लगने पर छक्का होता था.
पीछे का कोई रन नहीं होता था.
बिच्छु घास की झाड़ी में बॉल जाने पर 2 रन फिक्स होते थे. झाड़ी में बॉल
जाने पर वही ढूँढकर लाता जिसने मारी होती.
इन नियमों के साथ हम क्रिकेट की उस दुनिया से जुड़ते जो वास्तविक तौर पर हमारे लिए अनजान थी. उस दौर में यही दृश्य लगभग भारत के सभी गाँव का होता था. कमोबेश आज भी यही है. क्रिकेट की इस पहुँच और लोकप्रियता ने अन्य खेलों को नेपथ्य में कर दिया है. खेलों के इतिहास में शायद ही कोई खेल इस रफ़्तार से बढा होगा. खासकर भारत में तो इस खेल की यात्रा अद्भुत रही है. इस यात्रा में कई खिलाडी जुड़ते रहे जिनमें कुछ को याद रखा गया तो बहुतों को भुला भी दिया गया.
हाडमांस के 11 लोगों का यह खेल जिसे बार-बार ‘टीम गेम’ भी कहा जाता है, टिका अक्सर 2-3 खिलाडियों पर ही रहा. वही याद भी किए जाते रहे. कभी खेल, कभी नेतृत्व, तो कभी खेल में आक्रामकता के कारण लेकिन इन सब के बावजूद भारतीय क्रिकेट इतिहास में एक ऐसा खिलाडी आया जिसे इनके अतिरिक्त भी जाना गया.
सन् 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम के साथ एक खिलाडी जुड़ा जिसके लम्बे बाल, सामान्य कद काठी, चेहरे पर विस्मृति का भाव, थोडा आत्मविश्वास और एक शांत मुद्रा थी. यह खिलाडी जब पहला वनडे मैच खेलने मैदान में उतरा तो मात्र एक गेंद खेल पाया और रन आउट हो गया. उस रन आउट से जो यात्रा शुरू हुई थी वह वहां तक पहुंची जहाँ तक बहुत कम खिलाडी पहुँच पाते हैं. इस खिलाडी ने मैदान के अंदर ही नहीं बल्कि बाहर भी नियमों को
पूरा सम्मान दिया. यह जितना खेलता गया, सम्मान पाता गया और जितनी शौहरत की बुलंदियों को छूता गया उतना ही झुकता चला गया. किसी फलों से लदे हुए वृक्ष की तरह . इस खिलाडी ने क्रिकेट ही नहीं बल्कि सपनों को भी उड़ान दी. वानखेड़े स्टेडियम के हैलीकॉप्टर शॉट ने भारत को विश्व कप ही नहीं दिलाया बल्कि भारत के गांवों में क्रिकेटर बनने का सपना देख रहे युवाओं को भी पंख लगा दिए. बड़े-बड़े महानगरों से क्रिकेट को खलिहानों तक पहुँचाने वाला खिलाडी था।
महेंद्र सिंह धोनी- यह खिलाडी जहाँ अपनी शालीनता से खेल प्रेमियों को मुरीद बनाता गया तो वहीं मैदान पर लिए फैसलों से चौंकता भी रहा. भला कौन कप्तान विश्व कप (टी 20) मैच का अंतिम ओवर जोगिन्दर शर्मा जैसे नए खिलाडी को देता. विश्वकप में जब युवराज सिंह के हाथों में इस कप्तान ने गेंद थमाई तो कौन जानता था कि 2011 विश्वकप के वो श्रेष्ठ गेंदबाजों में से एक होंगे. उन्होंने उस वर्ल्ड कप में 15 विकेट लिए थे.
यह तो मात्र दो उदाहरण हैं धोनी की कप्तानी के इतिहास में ऐसे कई फैसले हैं जो धोनी की एक अलग पहचान गढ़ते हैं. इस खिलाडी ने ‘जेंटलमैन’ खेल को उसी भावना से खेला. मैदान में विषम से विषम परिस्थियों में भी धोनी शांत रहे. उनके नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट इतिहास को वह सब कुछ मिला जो पाया जा सकता था. धोनी जब खेलते तो खेलने के तरीकों से चौंकाते, जब विकेट के पीछे होते तो स्टम्प करने की कला से चौंकाते, जब कप्तानी कर रहे होते तो निर्णयों से चौंकाते और कल उन्होंने क्रिकेट से संन्यास लेने की घोषणा से भी खेल प्रेमियों को चौंका दिया. यह एक अप्रत्याशित घोषणा थी. सबको उम्मीद थी कि इस क्रिकेटर की विदाई मैदान से होगी.
धोनी इसके हकदार भी थे. उन्होंने सबकुछ मैदान से ही पाया. शायद उनकी इच्छा भी यही रही होगी लेकिन धोनी ने 15 अगस्त की शाम को सन्यास लेने की घोषणा करके क्रिकेट के पंडितों और चाहने वालों को रन आउट कर दिया. उनके साथ ही सुरेश रैना का भी क्रिकेट से सन्यास लेना महज इत्तेफाक नहीं है. सुरेश रैना को धोनी का करीबी खिलाडी माना जाता था. दोनों ने बहुत लंबे समय तक साथ में खेला और बाहर भी साथ बैठे रहे. इस पर आगे चर्चा जरुर होगी.
धोनी जैसा खिलाडी क्रिकेट से आउट नहीं हो सकता. वह मैदान में और उसके बाहर भी नाबाद रहने वाला खिलाडी है. यह बात धोनी ने कई बार साबित भी की है. अब जब वह क्रिकेट से संन्यास ले चुके हैं तो सबकी नज़र उनकी आगे की राह पर होगी. इस चुपके ले ली गई विदाई के मायने भी अभी निकाले जाने बाकी हैं.