उत्तराखंड:“देवभूमि”उत्तराखंड का सौंदर्य पूरे जहां में सर्वविदित है।कुदरत ने यहां चहुं ओर अलौकिक सौंदर्य की छटा बिखेरी हुई है।इसकी खूबसूरती सिर्फ यहां के पहाड़ों ,नदियों और वादियों में ही नही बल्कि ऋषि मुनियों की सहेजी इस पावन भूमि का कण-कण अपने आप में बेहद अदभुत है।देवों की चुनी इस धरती में कदम कदम पर एक से एक खूबसूरत मंदिर देखने को मिलते हैं।यहाँ भक्ति में डूबे बहुत से पवित्र तीर्थ स्थल हैं जो श्रद्धालुओं को दूर -दूर से खींचे लिए आते हैं।हर पावन तीर्थ की स्थापना के पीछे अपनी रहस्यमयी और आलोकिक कथा है । यहाँ की पावन धरती भगवान की श्रद्धा में डूबे भक्तों को खूब भाति है जिसके मोह में पर्यटक हज़ारों की संख्या में यहाँ आते हैं।उन्हीं में से एक धाम है माता पूर्णागिरी का धाम।
भव्य शिखर पर बसा हुआ, मां पूर्णा का दरबार
यह उद्धार का मार्ग सरल ,यहां हर इच्छा हो साकार
पूर्णांगिरी धाम की ख्याति पूरे देश में फैली है।”माँ वैष्णो देवी” जम्मू के दरबार की तरह पूर्णांगिरि दरबार में लाखों की संख्या में लोग आते है।पूर्णागिरी मैया का धाम समुद्र तल से 5000 फीट की ऊँचाई में अन्नपूर्णा शिखर पर है। इस धाम को समस्त दुखों को हरने वाली देवी के रूप में जाना जाता है। पूर्णागिरी धाम 108 सिद्ध पीठों में से एक है।यह टनकपुर से 21 किमी दूर पर स्थित है।टनकपुर क्षेत्र उत्तराखंड के चंपावत जिले में पड़ता है। जहां हरे-भरे पहाडों में पूर्णागिरी का निवास स्थान है।पूर्णागिरी माता का यह धाम सारे भारत में अब इतना प्रसिद्द हो गया है कि यहाँ आकर शीश झुकाने मात्र से भक्तों के सारे बिगडे़ काम बन जाते है और मन में नई स्फूर्ति का संचार हो जाता है।
टनकपुर से पूर्णागिरि मंदिर
टनकपुर शहर जो की उत्तराखंड के चम्पावत जिले का हिस्सा है। माँ पूर्णागिरि के भक्तों का मुख्य पड़ाव होता है। बेहद खूबसूरत वनाचाद्दित पहाड़ियों की गोद में बसा छोटा सा शहर टनकपुर माँ पूर्णागिरि के आशीर्वाद की तरह प्रतीत होता है। टनकपुर पहुंचने के बाद पूर्णागिरि पहुंचने के लिए टनकपुर से आगे 17 किलोमीटर की दूरी अलग- अलग तरह के निजी वाहनों या फिर उत्तराखंड परिवहन की बस से तय की जा सकती है।जबकि अंतिम 3 किमी की यात्रा पैदल करनी पड़ती है, जिसमे खड़ी पहाड़ी के ऊपर चढ़ना पड़ता है। और इस तरह हम पहुंचते है माँ पूर्णा के दरबार ‘पूर्णागिरि’ मंदिर।
माँ पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास
शिव पुराण में रुद्र-सहिंता के अनुसार, राजा दक्ष प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ हुआ था। कहा जाता है कि ब्रम्हा पुत्र दक्ष प्रजापति ने एक बार एक विशाल यज्ञ किया था। जिसके लिए उन्होंने सभी देवी- देवताओं और ऋषिओं को निमंत्रित किया था। परन्तु भगवान शिव को किसी पूर्वाग्रह की वजह से अपमानित करने की दृष्टि से निमंत्रण नहीं दिया। जिसे पार्वती (सती) ने भगवान शिव का घोर अपमान समझा और यज्ञ की वेदी में अपनी देह की आहुति कर दी।भगवान शिव यह जानकर बहुत ही क्रोधित हो गए।और अपनी पत्नी के जली हुयी देह को लेकर आसमान में विचरण करते हुवे तांडव करने लगे। भगवान शिव का तांडव देखकर सारे देवी देवता परेशान हो गए और भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। भगवान विष्णु ने चिंतित होकर अपने चक्र से भगवान शिव द्वारा हाथ में लिए गए माता सती की देह के अलग- अलग हिस्से कर दिए। अलग अलग हिस्से अलग- अलग जगहों में गिरे। और जहां-जहां भी गिरे वहां- वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुयी ।
इन्हीं हिस्सों में से एक हिस्सा जो कि माता सती की नाभि का था, अन्नपूर्णा पर्वत शिखर में जा कर गिर गया । कालान्तर में यह स्थान पूर्णागिरि कहलाया) ।माता पूर्णागिरि मंदिर में देवी के नाभि की पूजा की जाती है।वर्ष 1632 में कुमाऊं के राजा ज्ञान चन्द के दरबार में गुजरात से श्री चन्द्र तिवारी पहुंचे।उन्हें इस देवी स्थल की महिमा स्वप्न में दिखी। इसके बाद उन्होंने इस स्थान पर माता की मूर्ति स्थापित की। तब से यहां पर पूजा अर्चना का कार्य तिवारी और उनके भान्जे, बल्हेडिया उर्फ पाण्डेय करते आ रहे हैं। माना जाता है कि सच्चे मन से मां की उपासना करने पर मनोकामनाएं जरूर पूरी होती हैं। मां अपने किसी भक्त को निराश नहीं करती लेकिन गलतियों पर सजा देने में भी देर नहीं करती है। दो उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। एक बाबा सिद्वनाथ जिन्होंने महाअष्टमी को मां के दिव्य दरबार में जाने का दुस्साहस किया। दैवीय प्रकोप से उनका शरीर दो टुकड़ों में बॉटकर उछाल दिया गया।
दूसरा उदाहरण निसन्तान सेठ-सेठाणी का है। जिन्होंने सन्तान होने पर सोने का मंदिर चढ़ाने का वचन दिया था। मनोकामना पूर्ण होने पर उन्होंने तांबे के मंदिर में सोने का पानी चढ़ाकर मां को अर्पित करना चाहा, लेकिन मुख्य मन्दिर से एक किमी पहले ही मंदिर इतना भारी हो गया कि लाख प्रयत्नों पर भी न उठाया जा सका। मां ने भेंट अस्वीकार कर दी। आज भी टुन्नास के पास झूठे मन्दिर के नाम से वह तांबे का मंदिर मौजूद है।
माँ पूर्णागिरी का मेला
माँ पूर्णागिरि मंदिर में लगभग वर्ष के 12 महीने भीड़ रहती है। मगर चैत्र की नवरात्रियों में यहाँ एक बड़े मेले का आयोजन होता है जो जून आखिरी तक चलता रहता है। मेले की प्रशासनिक जिम्मेदारी चम्पावत जिला पंचायत की होती है। प्रशासन श्रद्धालुओं की हर तरह से सुविधा हेतु मौजूद रहता है। लगभग तीन माह तक चलने वाले इस मेले में हर साल लगभग 25 से 30 लाख श्रद्धालु देश विदेश से दर्शन के लिए माँ पूर्णागिरि के दरबार में पहुंचते है। टनकपुर शहर में मेले के समय बहुत भीड़ भाड़ रहती है।
माता को चढ़ावा
इस मंदिर में चढ़ावे के लिए, नारियल एवं चुनरी का विशेष महत्व है। चढ़ावे हेतु लोग अपनी मनोकामना के हिसाब से सामग्री लाते है।स्त्रियां श्रृंगार का सामान चढ़ावे के रूप में लेकर आती है। सामान्य तौर पर नारियल, चुनरी, प्रसाद, धूप, अगरबत्ती आदि चढ़ावे के लिए दिया जाता है। मंदिर के आस-पास बहुत सी छोटी-बड़ी दुकाने, प्रसाद एवं अन्य जरुरी वस्तुए बेचते हुये वहीं मिल जाती हैं।
आस्था एंव महत्व
लोग छोटे बच्चों के मुंडन संस्कार के लिए माँ पूर्णागिरि मंदिर आते है।माँ’ पूर्णागिरि ‘मंदिर के सम्बन्ध में मान्यता है कि, जो भी श्रद्धालू यहां पूर्ण निष्ठा एवं विश्वास के साथ आता है उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। लोग मंदिर के रस्ते में उगी घास पर गाँठ बांधकर मन्नत मांगते है और जब मनोकामना पूरी होती है तो दोबारा आकर गाँठ को खोलते है। कुछ लोग चुनरी लेकर भी गाँठ बांधते और खोलते है।मां पूर्णागिरि धाम में देवी के चमत्कारिक गाथा से जुड़े तीन और छोटे-छोटे मंदिर भी हैं जिन पर लोगों की अटूट आस्था है। पूर्णागिरि पर्वत चोटी पर विराजमान देवी ने कई ऐसे चमत्कार भी किए जो लोगों को मां’ पूर्णागिरि’ की दैवीय शक्ति का अहसास कराते हैं। इस अहसास की वजह से भारत के अलावा पड़ोसी देश नेपाल से बड़ी संख्या में भक्त दर्शन करने आते हैं।
इस धाम के प्रति भक्तों में अपार आस्था है जिसका अनंत काल तक कोई अंत नही दिखता ।मंदिर के इस स्थान में होने के कारण यहां लघु व्यापार ,पर्यटन के विस्तृत क्षेत्र हैं। अद्वीतीय पवित्र धामों की श्रृंखला में मां पूर्णागिरी धाम भी उत्तर भारत की अनुपम पहचान में चार चांद लगाता है।