Almora News

अल्मोड़ा: इंटरनेट हुआ फेल,टीचर नीमा ने घर पर ही शुरू की क्लास,रोज़ बढ़ रही है बच्चों की संख्या

हल्द्वानी|प्रकाश उप्रेती: पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी के दौर से गुजर रही है। दुनिया को इसकी चपेट में आए एक वर्ष से ज्यादा का समय हो गया है। दुनिया के अलग-अलग देशों ने इसके संक्रमण को रोकने के लिए तरह-तरह के तरीके इजाद किए और शहर के शहर घरों में कैद रहे। यह मानव इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है जहाँ नजदीकियों की अपेक्षा दूरी बनाए रखना ही जीवन बचाए रखने की शर्त हो गई।

मशीनी इतिहास में भी यह घटना अभूतपूर्व ही है जहाँ जमीन से लेकर हवाई यातायात और बड़े-बड़े कारखाने भी महीनों बंद रहे। रफ्तार से दौडती जिंदगी अचानक थम गई। इसके कारण पूरी दुनिया में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत कुछ बदल गया। एक साल के बाद भी पूरी दुनिया इस त्रासदी से कई स्तरों पर जूझ रही है। इस महामारी ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।

इस महामारी का प्रभाव कई स्तरों पर दिखाई देने लगा। खासकर इस डूबती अर्थव्यवस्था का तीसरी दुनिया के देशों की आंतरिक व्यवस्थाओं पर गहरा असर पड़ा है। अर्थव्यवस्था के बाद जो व्यवस्थाएं इस महामारी के कारण बहुत हद तक प्रभावित हुई हैं उनमें प्रमुख तौर पर शैक्षणिक गतिविधियाँ हैं। भारत में मार्च से स्कूल और कॉलेज बंद हैं। इस दौरान ऑनलाइन क्लास के जरिए शैक्षणिक गतिविधियों को बनाए रखने की कोशिश जरुर हुई लेकिन भारत में यह बहुत कारगर न है न हुई।

ऑनलाइन क्लास के लिए जो संरचनागत ढांचा चाहिए वह न तो विकसित हो पाया है और न ही निकट भविष्य में हो सकता है। इसलिए ऑनलाइन क्लास का कौंसेप्ट भारत में क्लास रूम टीचिंग का विकल्प नहीं हो सकता है। न ही यह लम्बे समय तक चल सकता है। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में भी पढने के लिए भारत के गांवों से ही बच्चे जाते हैं। इस महामारी और लॉकडाउन के बाद वह वापस गाँव लौटे तो अब तक कॉलेज नहीं आ पाए। गाँव में रहते हुए ऑनलाइन क्लास के लिए जिस इन्टरनेट, स्मार्ट फोन और लैपटॉप की आवश्कता है वह भी बहुत कम छात्रों के पास है।

यह भी पढ़ें: उत्तराखंड 9 पहाड़ी जिलों में नए साल में कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल को मिलेगा साप्ताहिक अवकाश

यह भी पढ़ें: नैनीताल विंटर कार्निवाल: 30 दिसंबर को होगी हाफ मैराथन, एक क्लिक पर करें पंजीकरण


भारत के कई गांवों में आज भी फोन सिग्नल बमुश्किल ही पकड़ते हैं ऐसे में इन्टरनेट की तो बात ही दूर है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण भारत में ऑनलाइन शिक्षा कितनी संभव है, इस पर कुछ हलकों में बात जरुर हुई लेकिन व्यापक चर्चा नहीं हुई। यह विकल्प कितना कारगर होगा या इन महीनों में हुआ खासकर ग्रामीण भारत में, इस पर भी कम ही बात हुई। साथ ही बच्चों की मानसिक स्थिति पर पड़ने वाले दबा और माता-पिता पर पड़ने वाले अतिरिक्त आर्थिक बोझ को भी नजरअंदाज किया गया। अब जबकि स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढाई का यही माध्यम बन गया है तो कई सारी समस्याएँ आ रही हैं।

भले ही सरकार और संस्थान इसे विकल्प के तौर पर देख रहे हों लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या इस विकल्प से सबको शिक्षा मिल पा रही है? क्या इसका कोई अन्य स्थानापन भी हो सकता है। खासकर ग्रामीण इलाकों के लिए जहाँ इन्टरनेट की सुविधा बहुत ही सीमित है और वह संसाधन भी उनके पास नहीं जिनके जरिए ऑनलाइन क्लास संभव हो सकती है। साथ ही फोन या लैपटॉप के अधिक प्रयोग से जो मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं उनको नजर अंदाज किया जा रहा है। ऐसे में आज आपको उत्तराखंड के सुदूर गाँव में चल रहे कम्युनिटी टीचिंग से अवगत कराता हूँ जो कहीं न कहीं इस दौर में कारगर साबित हो रहा है और गांवों के हिसाब से यह ऑनलाइन क्लास का सबसे उपयुक्त विकल्प है।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में इन्टरनेट की स्थिति धूप-छाँव की तरह है। इसलिए किसी भी स्तर पर ऑनलाइन क्लास हो पाना संभव नहीं है. छोटे से लेकर बड़े बच्चों के स्कूल मार्च से ही बंद हैं। इस महामारी के कारण शहरों में रहने वाले लोग गाँव की तरफ लौटे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान उत्तराखंड में 3.57 लाख लोग अपने गाँव लौटे थे। इनमें से तक़रीबन 30 प्रतिशत अब तक वापस शहरों की तरफ लौट चुके हैं। ऐसे में कई परिवार गाँव लौट आए। इसमें जहाँ माता-पिता की नौकरी में संकट आया तो वहीं बच्चों की पढाई भी संकट के घेरे में आ गई।

अब वह एक तरह से दोराहे पर खड़े हैं। यह दोराहे का संकट स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों पर ज्यादा है। शहर के स्कूल में जाना अब दूर की बात हो गई है क्योंकि पिता का रोजगार नहीं रहा। वह अब अपने बच्चों को गाँव में ही पढाना चाहते हैं। उत्तराखंड में अभी छोटे बच्चों के स्कूल खुले नहीं है। ऑनलाइन क्लास हो पाना संभव नहीं है, न उतने संसाधन हैं। ऐसे में माँ-बाप की चिंता पढाई को लेकर दिनों-दिन बढती जा रही है। ऐसी स्थिति को देखकर ही उत्तराखंड के सुदूर गाँव खोपडा में एक लड़की नीमा ने कम्युनिटी टीचिंग का एक रास्ता खोजा। नीमा ने उन सब माँ-बाप की चिंता को दूर करने की कोशिश की जो- “मानते और कहते रहते थे कि इतने दिनों से स्कूल बंद हैं तो घर पर बच्चे कुछ पढ़ नहीं रहे हैं. इनका दिमाग पढाई में वापस कैसे लगेगा, अगर स्कूल खुलते ही परीक्षा हुई तो यह क्या लिखेंगे आदि।”

यह भी पढ़ें: हल्द्वानी में दहेज का मामला आया सामने,कोतवाली पहुंची महिला, पति के खिलाफ केस दर्ज

यह भी पढ़ें: लोकसंस्कृति को बढ़ावा,DM बंसल की पहल,कुमाऊंनी रंग में नजर आएगी आपकी सरोवर नगरी

इन सब प्रश्नों और शंकाओं के बीच ही नीमा ने वह रास्ता खोजा जिसे ‘कम्युनिटी टीचिंग’ के मॉडल के रूप में समझा जा सकता है. नीमा ने बिनोली और खोपडा दोनों गाँव के उन बच्चों से मुलाकात की जो दिल्ली से आए हैं और फिर उनसे जो गाँव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ते थे। बच्चों और उनके माता-पिता से बात करके उन्हें पढ़ाना शुरू किया। आरम्भिक दौर में 4 ही बच्चे थे तो उन चारों बच्चों को उनके घर जाकर पढाना आरंभ किया। 2 महीने पहले 4 बच्चों से जो यह यात्रा आरंभ हुई आज उसमें 14 बच्चे जुड़ गए हैं। इन 14 बच्चों में 6 बच्चे वो हैं जिनके माँ-पिता दिल्ली से उनको गाँव ले आए हैं और अब यहीं के स्कूल में उनको पढाना चाहते हैं। बाकि 8 बच्चे यहीं प्राथमिक स्कूल में पढने वाले हैं।

आरम्भ में घर-घर जाकर पढ़ाने की मुहिम शुरू करने वाली नीमा अब सभी बच्चों को अपने घर के आंगन में एक साथ पढ़ाती हैं। वह बताती हैं कि “आरंभ में माता-पिता अपने बच्चों को बाहर पढ़ने के लिए भेजने में डर रहे थे। वह चाहते थे की उनके बच्चे पठन-पाठन से जुड़ें लेकिन उनको कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। ऐसे में मैंने उन्हें आरम्भ में घर जाकर ही पढ़ाया और धीरे-धीरे बच्चों के माता-पिता का वह डर भी दूर किया जिसके कारण वह बच्चों को बाहर नहीं भेज रहे थे। साथ ही कोरोना महामारी के बचाव के तरीकों को उनकी पढाई से जोड़ दिया। इसलिए अब मैं सब बच्चों को एक साथ पढ़ाती हूँ।” फ़ीस के सवाल पर नीमा कहती हैं – “मैंने कोई फ़ीस तय नहीं की है। मैंने आरम्भ में ही सबके माता-पिता को कह दिया था कि जो दे सकता है वह स्कूल भर की फ़ीस के बराबर दे दें और जो नहीं दे सकता है उस पर कोई दबाव भी नहीं है।”

इस तरह नीमा रोज सुबह 8.30 से 12.30 तक इन बच्चों को पढ़ाती हैं। इन बच्चों में दूसरी कक्षा से लेकर छठी कक्षा तक के बच्चे हैं। नीमा स्कूल के हिसाब से इनको हर रोज अलग-अलग विषय पढ़ाती हैं। इस तरह महामारी में नीमा ने पठन-पाठन का यह तरीका खोजा जो पहाड़ों के दूर-दराज के गाँव में बड़ा कारगर साबित हो रहा है। इसमें अब पढ़ाने के लिए गाँव के और बच्चे भी जुड़ते जा रहे हैं।

ऐसे में ऑनलाइन क्लास के दौर में यह कम्युनिटी टीचिंग का तरीका बच्चों को शिक्षा से जोड़े रख रहा है। इसमें न इंटरनेट, न स्मार्ट फोन और न ही लैपटॉप चाहिए। ऐसी पहल अगर व्यवस्थित तरीके से और ग्राम पंचायत स्तर पर हो तो इसका लाभ अधिक से अधिक बच्चों को मिल सकता है। सरकार को भी ऑनलाइन शिक्षण के बरक्स दूर दराज के गाँव में इस तरह के शिक्षण मॉडल को विकसित करने की ओर ध्यान देना चाहिए। तभी इस महामारी के दौर में शिक्षा और शिक्षण की समस्याओं से पार पाया जा सकता है।

यह भी पढ़ें: IMA के अध्यक्ष ने की उत्तराखंड के डॉक्टर की तारीफ, सर्वश्रेष्ठ अवार्ड से नवाज़ा

यह भी पढ़ें: सिलेंडर के दाम फिर बढ़ें, घरेलू गैस उपभोक्ताओं को 50 रुपए अधिक देने होंगे

नोट: हेडलाइन में अल्मोड़ा की जगह टिहरी प्रकाशित हुआ था। हल्द्वानी लाइव इस गलती के लिए आप सभी से क्षमा चाहता हैं।

To Top